LEARNING TO BE HAPPY

  • इस द्रश्य जगत में प्रत्येक प्राणी किसी भी वर्ग/श्रेणी में जिसने जन्म लिया हो, प्रसन्नता का ही इच्छुक रहता है। जरा सा दुःख, प्रतिकुलता असंतोष उत्पन्न कर देती है। ऐसा अनुभव है कि अनुकुलता व प्रतिकुलता, दुःख व सुख सदैव साथ चलते हैं। प्रश्न है कि प्रसन्न कैसे रहा जाए। ये भी अनुभव है कि प्रसन्नता केवल एक मानसिक स्थिति है न कि बाहर की स्थिति। इसका मतलब है कि हे एक स्थिति है जो हर परिस्थिति में बनायी जा सकती है। अब आगे …
  • अनुभव और शास्त्रोक्ति अनुसार कोई भी व्यक्ति अपने भूतकाल को यदि छोडेगा नहीं तो वो वर्तमान को भी भूतकाल ही बनाने की तैयारी में है। पिछला थैला वंही छोड़ कर मस्तिष्क स्वच्छ रखने की आवश्यकता है प्रसन्नता का ह्रदय से अनुभव करने के लिए।
  • एक और अनुभव आता है … प्रसन्नता इस द्रश्य जगत में सदैव उलझे रहने से नहीं प्राप्त होती। ये प्राप्त होती है “सादगी ” और “अर्थ पूर्ण अलगाव ” से। इससे एक संतुलित परिवार व समाज का निर्माण होता है।
  • प्रसन्नता शारीरिक या बाहरी संतोष नहीं है बल्कि मानसिक संतुष्टि की स्थिति में पहुंचकर स्थित होना है। हम सब ये कर सकते हैं। अपनी आवश्यकताओं को अवश्य पूरा करें परन्तु लालच को नहीं
  • हर एक नया दिन इस जीवन में निवेश करने योग्य होता है। यदि कुछ प्रतिकूल होता है तो कुछ अनुकूल भी होता है। अपनी द्रष्टि अधिकाधिक अनुकूलता पर बनाये रखना चाहिए जो हार्दिक व मानसिक संतुष्टि देगा
  • कोई भी व्यक्ति विभिन्न स्थितियों, व्यक्तियों से प्रभावी तरीके से तभी निपट सकता है जब वो प्रसन्नचित्त रहें। इसलिए प्रसन्नता को फैलायें, अप्रसन्न होने कि स्थिति में शांतिपूर्ण रहना आवश्यक है
  • प्रसन्नता अनुभव करने के लिए किसी भी व्यक्ति को अलग से समय या दिन और कोई भी बाह्य वस्तु नहीं चाहिए। प्रसन्नता तो मनुष्य का आध्यात्मिक स्वरूप है, अनुभव करने का प्रयास तो करना ही होगा।
  • प्रसन्नता आधारित है आपकी सोच पर कि प्रसन्न रहना है या दुखी ही रहना है अर्थात केवल एक मानसिक स्थिति। इसलिए एक स्थिति का निर्माण करके रखना आवश्यक है
  • आप अपने बचपन में बहुत हंसते थे, छोटी सी खुशी पर नाचते थे। बड़े हो जाने पर ये सिखाया जाता है कि हंसना, नाचना ठीक नहीं क्यूंकि आप अब बड़े हो गये हैं। बस यहीं गलती हो गयी। समय के साथ हंसना, नाचना भूलना नहीं है। प्रसन्नता इन्हीं से जन्म लेती है।
  • प्रसन्नता एक प्राकृतिक स्थिति है हम सभी मनुष्यों के लिए। ह्रदय और मन का सम्बन्ध जिसे प्रवृत्ति कहते हैं, आच्छादित हो जाता है “मैं” के दबाव से। बस इसको सुधारने की आवश्यकता है।

    PART 2

  • हमने भाग 1 में पढ़ा “प्रसन्नता मनुष्य को प्राकृतिक स्थिति है” फिर क्यों हम तनावपूर्ण रहते हैं। संतों, मनुष्यों तथा शास्त्र सम्मत बात है कि जब आवश्यकता से अधिक एकत्रीकरण करने की योजना बनाई जाती है तब तनाव घेर लेता है और न कर पाने का दुःख आ जाता है अर्थात अप्रसन्नता। ‘अस्ति’ पर या जो है पर ध्यान दें न कि ‘नास्ति ‘पर
  • हमारी प्रसन्नता एक प्राकृतिक स्फुरण है न कि बाहर से बनाया हुआ। हमने इस द्रश्य जगत को ओढ़ लिया है और प्रत्येक क्षण कुछ करके कुछ प्राप्त करने का मंतव्य बना लिया है। ईश्वर प्रदत्त इस प्रकृति को ही निहारें—कुछ बनता दिख रहा है। अवलोकन करें और नष्ट-भ्रष्ट करने का प्रयास न करें।
  • अपने भूतकाल से अलग होकर चलिए बस सीख ले लीजिए कि वो त्रुटि फिर से न हो और आप हृदय में शांति का अनुभव करते रहें। किसी के हृदय को चोट न पहुंचे। जहर उगलने वालों से दूरी बनाकर रखिये। इस तरह से आनंद स्वरूप में स्थित रहेंगे हम।
  • अपने अनुभव से ये समझने को मिला कि लगभग 90% लोग अपने हृदय में धारणाएं, दुःख व दुर्भावनाओं का विष एकत्र करके रखते हैं कि वो सब भविष्य में उपयोग करेंगे। अब ये उनके उपर है कि विष को निकाल कर शांत हृदय से आनंद अनुभव करने के इच्छुक हैं या नहीं।
  • केवल आनंद लेना ही शायद सबका लक्ष्य नहीं हो सकता। इस दृश्य जगत में बहुत से कार्य कोई कारणों से कड़वे अनुभव भी करवाते हैं। आनंदित रहने से बहुत कुछ अच्छे कार्य जो बिगड़ सकते थे, अच्छे ही हो जाया करते हैं।
  • जब कोई अपने स्व को भूलकर अपनी पहचान सामान, कपड़े, केवल आभूषण, अच्छे और ज्यादा भोजन इत्यादि को ही बना लेता है तो आनंद कहीं दब कर मर जाता है। अतः अपने को सामान न बनाएं और स्वयं को जीवंत रखें।
  • क्यों सदैव कुछ पाने की और उसको उपयोग करके फिर कुछ पाने की तरफ हमारा मन कार्य करने को तत्पर हो जाता है। ये आनंद का मूल नहीं है। आवश्यकता से बहुत अधिक केवल सामान है जिसे संभालते रहने में ही हम आनंद भूलकर ऊहापोह में फंसकर शेष जीवन अपर्याप्त बनाकर दुःख में काटते हैं।
  • किसी भी कार्य या लक्ष्य की प्राप्ति वांछनीय तो है इस दृश्य जगत में परंतु करने की प्रक्रिया शांति पूर्ण रखना आवश्यक है। शांति रहे और स्थिर विचार उस लक्ष्य पर हो तो आनंद की अनुभूति अवश्य ही होगी। कार्य की पूर्णता शांति के साथ आनंददाई होगी।
  • हम सब कुछ न कुछ इस समाज से, देश से प्राप्त करते हैं और प्रकृति से भी। अतः समय रहते कुछ न कुछ वापस भी देना होगा। ये भी एक आनंद का विषय बनता है जो एक महती अनुभूति है।
  • मेरा अनुभव है कि किसी भी सेवा कार्य जिसके बदले में कुछ भी न लिया जाए, वास्तव में भाग्वतिक आनंद प्रदान करता है। कहीं किसी के लिए सदैव कुछ न कुछ करते रहें

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